गुलाबी सर्दी

गुलाबी सर्दी

आवरण कथा

बरषा विगत सरद ऋतु आई
लछिमन देखहुँ परम सुहाई
फूले कास सकल महि छाई
जनु बरसा कृत प्रगट बुढ़ाई
-गोस्वामी तुलसीदास

अर्थात् हे लक्ष्मण ! देखो वर्षा ऋतु बीत गयी है और मनमोहक शरद ऋतु का आगमन हो चुका है। कास के फूलों से ढकी हुई पृथ्वी, वृद्धा वर्षा के सफ़ेद खुले हुए बालों-सी लगती है।
भारत की चारों ऋतुओं में सबसे ठंडी ‘शरद ऋतु’ के आगमन की सुगबुगाहट इन दिनों वातावरण में महसूस हो रही है। हर तालाब में कमल खिलने लगे हैं, सब्ज़ीवालों की रेहड़ी पर सब्ज़ियों की रंगत लौटने लगी है, हल्के-हल्के रंग-बिरंगे स्वेटर निकल आये हैं, धूप कुछ गुनगुनाती-सी मिलती है; छत पर हवा के पाँव ठिठककर चलते हैं… और सुबह-सुबह फूलों के जिस्म पर ओस के गीले चुम्बन भी अब दिखायी देने लगे हैं। दिल्ली का झुकाव मौसम के इस रंग की ओर कुछ ज़्यादा ही है। मुझे दिल्ली में रहते कुल 12 वर्ष हो गये। मग़र इस मौसम का पूर्वानुमान करने में मैं आज तक असफल रही हूँ। कभी तो बिना किसी आहट के रातों-रात पूरी दिल्ली सर्दी के दुशाले में समा जाती है और कभी-कभी उस वक़्त तक भी सूरज की तपिश से इसे राहत नहीं मिलती, जिस वक़्त शेष भारत जाड़े के गुलाबी रंग में नहा रहा होता है।

विज्ञान के अनुसार पृथ्वी जब उत्तरी गोलार्द्ध पर चक्कर लगाती है तो शीत ऋतु आती है और किसी संवेदनशील हृदय की मानें तो विरह के तीव्र ज्वर के बाद मिलनेवाले प्रेम का शीतल स्पर्श होती है -शरद ऋतु। प्रकृति के मनोविज्ञान की ओर इंगित करते हुए संवेदना के मर्मज्ञ कवि अज्ञेय लिखते हैं-
ऊँघ रहे हैं तारे
सिहरी सिरसी
ओ प्रिय कुमुद ताकते
अनझिप क्षण में
तुम भी जी लो
शरद चान्दनी बरसी
अँजुरी भरकर पी लो

एक तो शरद ऋतु का रूप-रंग और उस पर चान्दनी का दूधिया उबटन! आह… ऐसे में किसी भी संवेदनशील हृदय से कविता का निर्झर फूटना स्वाभाविक है। पहाड़ों का सौंदर्य भी इस मौसम में दूना ही हो जाता है। रवींद्र जैन जी ने ‘राम तेरी गंगा मैली’ फ़िल्म में राग पहाड़ी पर आधारित इस गीत के माध्यम से सर्दी के मौसम को हर मौसम पर भारी कर दिया-
हुस्न पहाड़ों का
क्या कहना
कि बारहों महीने
यहाँ मौसम जाड़ों का

इस मौसम का ज़िक्र होते ही मुझे एक कहानी भी याद आती है। जिसमें किसी भूखे व्यक्ति को एक कलाकार बाँसुरी सुनाना चाहता है। मग़र उस भूखे व्यक्ति की अन्तड़ियों से उठता शोर संगीत से अनुनाद नहीं कर पाता और वह कलाकार की बाँसुरी तोड़कर पास बह रहे एक नाले में फेंक देता है। वास्तव में हर परिस्थिति की एक प्रतिकूल परिस्थिति होती ही है। सुर्ख़ लाल रंग अगर एक ओर नये जीवन की उमंगें लेकर हौले-हौले पाँव धरनेवाली दुल्हन के लिए सौभाग्य का प्रतीक है तो असमय ही सफ़ेद रंग की नीरसता स्वीकारने वाली विधवा के लिए आजीवन जीवित रहनेवाली एक टीस भी है।

इस मुए सर्दी के मौसम का भी यही हाल है। जिसके पास रजाई है, उसे रजाई ओढ़कर ठंड से स्वयं को बचाना भर है; और जिसके पास नहीं है उसके लिए ठंड में स्वयं को जीवित रखना एक चुनौती है। इस ‘बचाने’ और ‘जीवित रखने’ के अंतर को ही अलग-अलग कवियों ने अपनी कविताओं में शरद ऋतु के लिए परिभाषित किया है। पद्मावत में मलिक मुहम्मद जायसी ने इस ऋतु की कामुकता का वर्णन करते हुए लिखा है-
आइ सरद ऋतु अधिक पियारी
नौ कुवार कार्तिक उजियारी
पद्मावती भै पूनिव कला
चौदह चांद उए सिंगला
एहि ऋतु कंता पास जेहि सुख तिन्हके हीय माँह
धनि हँसि लागै पिय गले धनि गल पिय कै बाँह

शरद चान्दनी के अप्रतिम रूप को निहारते हुए हमारे कुनबे के वरिष्ठ कवि हेमन्त श्रीमाल लिखते हैं-
इस कदर मादक नहीं था मरमरी कोमल बदन
उम्र में शामिल हुआ है एक अल्हड़ बाँकपन
रूप में ख़ुद आ घुली है, ये शरद की चान्दनी
शोख़, चंचल चुलबुली है ये शरद की चान्दनी

तो वहीं अदम गोंडवी साहब ने इस सर्द मौसम के आगे घुटने टेकने की विवशता को शब्द देते हुए लिखा है –
भटकती है हमारे गाँव में गूंगी भिखारिन-सी
सुबह से फ़रवरी बीमार पत्नी से भी पीली है

वहीं ‘दिनमान’ के सम्पादक और दूसरे सप्तक के कवियों में शुमार रहे रघुबीर सहाय ने व्यवस्था पर कटाक्ष करते हुए लिखा है-
फिर जाड़ा आया
फिर गर्मी आयी
फिर आदमियों के पाले से,
लू से मरने की ख़बर आयी
न जाड़ा ज़्यादा था, न लू ज़्यादा
तब कैसे मरे आदमी?
वे खड़े रहते हैं तब नहीं दिखते,
मर जाते हैं तब लोग जाड़े और लू की मौत बताते हैं

दूसरी ओर सर्दी के मौसम की लज़्ज़त को शायरी की ज़ुबां देते हुए निदा फ़ाज़ली साहब कहते हैं-
कुहरे की झीनी चादर में यौवन रूप छिपाए
चौपालों में मुस्कानों की आग उड़ाती जाए

कविता को फ़कीरी की तरह जीनेवाले बाबा नागार्जुन आवश्यकता और ऐश्वर्य की बारीक रेखा को शब्द देते हुए कहते हैं-
ढके जा रहे
देवदार की हरियाली को अरे दूधिया झाग
ठिठुर रहीं उँगलियाँ
मुझे तो याद आ रही आग
गरम-गरम ऊनी लिबास से लैस
देव-देवियाँ देख रही होंगी अवश्य हिमपात
शीशामढ़ी खिड़कियों के नज़दीक बैठकर
सिमटे-सिकुड़े नौकर-चाकर चाय बनाते होंगे
ठंड कड़ी है
सर्वश्वेत पार्वती प्रकृति निस्तब्ध खड़ी है
बरफ़ पड़ी है

इसी संदर्भ में केदारनाथ सिंह संवेदनाओं को आँच देने के उद्देश्य से लिखते हैं-
ईश्वर
इस भयानक ठंड में
जहाँ पेड़ के पत्ते तक ठिठुर रहे हैं
मुझे कहाँ मिलेगा वह कोयला
जिस पर इंसानियत का ख़ून
गरमाया जाता है

कविता का काम समाज की संवेदनाओं को दुरुस्त करना है। कविता का काम हर उस दृश्य को बार-बार आपकी आँखों के सामने रखना है जिससे आप अक्सर आँखें चुराते हैं। कभी समय के अभाव का, तो कभी किसी अन्य विवशता का बहाना करके। ये सर्द मौसम सिर्फ़ इसलिए नहीं आता कि हम सन्दूक में भरे गर्म कपड़े निकाल लें, हीटर-ब्लोअर चला लें और मूँगफली तोड़ते हुए इतवार अपनी बालकनी में फ़ुर्सत करें। ये सर्द मौसम इसलिए भी आता है ताकि इंसानियत की नब्ज़ टटोली जा सके। ये देखा जा सके कि कोहरे की सल्तनत को चुनौती देने वाली एक भी गर्म किरण बाक़ी है कि नहीं। ये प्रकृति जानना चाहती है कि जब साँस का सामान बननेवाली हवा, मौत का सर्द फ़रमान बनकर आती है तो अहसासों की गर्मी कितनी देर टिकती है उसके आगे।

माना कि सर्द मौसम आने को है, मग़र कविता अपने पाठकों से यह आश्वस्ति चाहती है कि जहाँ कहीं भी कोई हथेली ठिठुरती मिलेगी, उसे आगे बढ़कर दो हाथ थाम लेंगे और अपनी गर्माहट से उसे मनुष्यता के जीवित होने का एहसास कराएंगे। तो आइए, इस बार रेलवे प्लेटफार्म पर अख़बार ओढ़कर सोते किसी बच्चे से मुँह न फेरा जाए। इस बार एक छोटी चादर में सड़क किनारे ख़ुद को और अपने बच्चे को ज़िंदा रखने की जद्दोजहद करती ममता से आँखें न चुराई जाएँ। इस बार नंगे बदन मज़दूरी करते किसी मज़दूर को देखकर अनदेखा न किया जाए। इस बार की सर्दियों में किसी मीठे किसी गीत को आवाज़ देना चाहे भूल जाएँ आप… मग़र मदद की किसी गुहार को अनसुना मत कीजिएगा।

-मनीषा शुक्ला

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *