बहारें जाड़े की
- Chirag Jain
- Dec, 05, 2021
- e-patrika, Nazeer Akbarabadi
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जब माह अगहन का ढलता हो तब देख बहारें जाड़े की
और हँस-हँस पूस संभलता हो, तब देख बहारें जाड़े की
दिन जल्दी-जल्दी चलता हो, तब देख बहारें जाड़े की
और पाला बर्फ़ पिघलता हो, तब देख बहारें जाड़े की
चिल्ला ग़म ठोंक उछलता हो, तब देख बहारें जाड़े की
तन ठोकर मार पिछाड़ा हो, और दिल से होती कुश्ती सी
ठर-ठर का ज़ोर उखाड़ा हो, बजती हो सबकी बत्तीसी
जब शोर हो फा-फू, हू-हू का, और धूम हो सी-सी-सी-सी की
कल्ले पे कल्ला लग-लग कर चलती हो मुँह में चक्की सी
हर दाँत चने सा दलता हो, तब देख बहारें जाड़े की
हर एक मकां में सर्दी ने आ बांध दिया हो ये चक्कर
जो हर दम कँप-कँप होती हो हर आन कड़ाकड़ और थर-थर
पैठी हो सर्दी रग-रग में और बर्फ़ पिघलता हो पत्थर
झड़-बंध महावट पड़ती हो और तिस पर लहरें ले-लेकर
सन्नाटा बाव का चलता हो, तब देख बहारें जाड़े की
हर चार तरफ़ से सर्दी हो, और सेहन खुला हो कोठे का
और तन में नीमा शबनम का हो जिस में खस का इत्र लगा
छिड़काव हुआ हो पानी का और ख़ूब पलंग भी हो भीगा
हाथों में पियाला शरबत का हो आगे इक फर्राश खड़ा
फ़र्राश भी पंखा झलता हो, तब देख बहारें जाड़े की
जब ऐसी सर्दी हो ऐ दिल तब रोज़ मज़े की घातें हों
कुछ नर्म बिछौने मख़मल के कुछ ऐश की लम्बी रातें हों
महबूब गले से लिपटा हो ओर कुहनी, चुटकी लेते हों
कुछ बोसे मिलते जाते हों कुछ मीठी-मीठी बातें हों
दिल ऐश-ओ-तरब में पलता हो, तब देख बहारें जाड़े की
हो फ़र्श बिछा ग़ालीचों का और पर्दे छोटे हों आ कर
इक गर्म अंगीठी जलती हो और शम्अ हो रौशन और तिस पर
वो दिलबर, शोख़, परी, चंचल, है धूम मची जिसकी घर-घर
रेशम की नर्म निहाली पर सौ नाज़-ओ-अदा से हँस-हँसकर
पहलू के बीच मचलता हो, तब देख बहारें जाड़े की
तरकीब बनी हो मजलिस की और काफ़िर नाचने वाले हों
मुँह उनके चांद के टुकड़े हों तन उनके रूई की गालें हों
पोशाकें नाज़ुक रंगों की और ओढ़े शॉल दुशाले हों
कुछ नाच और रंग की धूमें हों और ऐश में हम मतवाले हों
प्याले पर प्याला चलता हो तब देख बहारें जाड़े की
हर एक मकां हो ख़लवत का और ऐश की सब तैयारी हो
वो जान कि जिससे जी ग़श हो, सौ नाज़ से आ झनकारी हो
दिल देख ‘नज़ीर’ उस की छब को हर आन अदा पर वारी हो
सब ऐश मुहैया हो आकर जिस-जिस अरमान की बारी हो
जब सब अरमान निकलता हो, तब देख बहारें जाड़े की
जब माह अगहन का ढलता हो तब देख बहारें जाड़े की
-नज़ीर अकबराबादी
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