प्रेम बिना सब सून…
- Chirag Jain
- Feb, 01, 2022
- Chirag Jain, e-patrika
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सम्पादकीय
प्रेम को किसी एक भाव तक सीमित करना प्रेम के विरुद्ध किया गया सबसे बड़ा षड्यन्त्र है। प्रेम का अस्तित्व ही उसके असीमित होने में है। हानि-लाभ, सही-ग़लत, उचित-अनुचित और नैतिक-अनैतिक की सीमाओं से परे घटित होने वाला ‘गूंगे के गुड़’ जैसा एक अनुभव है प्रेम। कुछ ऐसा जहाँ एक क्षण के लिए पूरा जीवन दांव पर लगाना अखरता नहीं है। कुछ ऐसा, जहाँ एक व्यक्ति का अपनत्प पूरी सृष्टि की शत्रुता से अधिक मूल्यवान लगने लगता है। कुछ ऐसा, जहाँ मिर्ज़ा से मिलने की ललक में सोहनी को न तो चेनाब का चढ़ता हुआ पानी दिखाई देता है, न ही अपने घड़े का कच्चापन। कुछ ऐसा, जहाँ दशरथ माँझी अपना एक पूरा जीवन पर्वत काटने में ख़र्च कर देता है।
ऐसा कौन-सा आनन्द है इस प्रेम में कि मीरा जैसी विदुषि, ईश्वर और प्रेमी में अन्तर करना आवश्यक नहीं समझतीं। ऐसी कौन-सी अनुभूति है इस ढाई आखर में कि जिस प्रेमी को पूरी दुनिया पागल समझ रही होती है, वह अकेला पूरी दुनिया को पागल समझ रहा होता है। ऐसा क्या मिलता है प्रेम की इन वीथियों में कि इस राह पर चलनेवाला कोई भी शख़्स उसे हिक़ारत से देख रही दुनिया के समक्ष अपना पक्ष तक रखना आवश्यक नहीं समझता।
यकायक देखें तो अहसास होता है कि ईश्वर की खोज में निकलने वालों की बात-व्यवहार और प्रेम में पड़े हुए व्यक्तित्वों की अदाओं में काफ़ी साम्य है। दोनों ही स्थितियों में अभीष्ट की प्राप्ति के लिए भूख और नीन्द को अनदेखा कर दिया जाता है। दोनों ही रास्तों पर चलने वाले राही को लोक के मापदण्डों पर असफल सिद्ध करना बहुत आसान हो जाता है।
कविग्राम का यह अंक प्रेम की इन्हीं अकथ अनुभूतियों को समर्पित है। यह अंक इशारा भर है यह समझने का कि प्रेम की भव्यता किसी एक संज्ञा, किसी एक रिश्ते, किसी एक मान्यता और किसी एक प्रकार में बांधना एक ऐसा पागलपन है जिसे कम-से-कम प्रेम नहीं कहा जा सकता। इस अंक के किसी पृष्ठ को पलटते हुए आपको आपका कोई अनकहा लम्हा याद आ जाए तो इसे हमारी सफलता मानियेगा।
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