बादल को घिरते देखा है।
- Chirag Jain
- Nov, 10, 2021
- Nagarjun
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अमल धवल गिरि के शिखरों पर बादल को घिरते देखा है। छोटे-छोटे मोती जैसे उसके शीतल तुहिन कणों को मानसरोवर के उन स्वर्णिम कमलों पर गिरते देखा है बादल को घिरते देखा है। तुंग हिमालय के कंधों पर छोटी-बड़ी कई झीलें हैं उनके श्यामल नील सलिल में समतल देशों से आ-आकर पावस की ऊमस से आकुल तिक्त-मधुर विष-तंतु खोजते हंसों को तिरते देखा है। बादल को घिरते देखा है। ऋतु वसंत का सुप्रभात था मंद-मंद था अनिल बह रहा बालारुण की मृदु किरणें थीं अगल-बगल स्वर्णाभ शिखर थे एक-दूसरे से विरहित हो अलग-अलग रहकर ही जिनको सारी रात बितानी होती निशाकाल से चिर-अभिशापित बेबस उस चकवा-चकई का बंद हुआ क्रन्दन, फिर उनमें उस महान सरवर के तीरे शैवालों की हरी दरी पर प्रणय-कलह छिड़ते देखा है। बादल को घिरते देखा है। दुर्गम बर्फानी घाटी में शत-सहस्र फुट ऊँचाई पर अलख नाभि से उठने वाले निज के ही उन्मादक परिमल- के पीछे धावित हो-होकर तरल-तरुण कस्तूरी मृग को अपने पर चिढ़ते देखा है। बादल को घिरते देखा है। कहाँ गया धनपति कुबेर वह? कहाँ गयी उसकी वह अलका? नहीं ठिकाना कालिदास के व्योम-प्रवाही गंगाजल का ढूँढ़ा बहुत परन्तु लगा क्या मेघदूत का पता कहीं पर कौन बताए वह छायामय बरस पड़ा होगा न यहीं पर जाने दो, वह कवि-कल्पित था मैंने तो भीषण जाड़ों में नभ-चुम्बी कैलाश शीर्ष पर महामेघ को झंझानिल से गरज-गरज भिड़ते देखा है बादल को घिरते देखा है। शत-शत निर्झर-निर्झरणी-कल मुखरित देवदारु कानन में शोणित-धवल-भोजपत्रों से छायी हुई कुटी के भीतर रंग-बिरंगे और सुगंधित फूलों से कुन्तल को साजे इंद्रनील की माला डाले शंख-सरीखे सुघड़ गलों में कानों में कुवलय लटकाए, शतदल लाल कमल वेणी में रजत-रचित मणि-खचित कलामय पान पात्र द्राक्षासव-पूरित रखे सामने अपने-अपने लोहित चंदन की त्रिपदी पर नरम निदाग बाल-कस्तूरी मृगछालों पर पलथी मारे मदिरारुण आखों वाले उन उन्मद किन्नर-किन्नरियों की मृदुल मनोरम अँगुलियों को वंशी पर फिरते देखा है। बादल को घिरते देखा है। -नागार्जुन
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