चान्दनी बहकी हुई है

चान्दनी बहकी हुई है

शरद की स्वच्छ शीतल चांदनी बहकी हुई है
आओ हम भी इस बहक में बहक जाएँ

फूल, झरने, तितलियाँ, सुरभित हवाएँ,
कह रही हैं आज मौसम है प्रणय का
त्यागकर संकोच सारी वर्जनाएँ
सृष्टि की लय में अहम् के चिर विलय का
गगन महका हुआ, सारी धरा महकी हुई है
आओ हम भी इस महक में महक जाएँ

मिल रही नदियाँ समन्दर से लिपटकर
छटपटाकर चूमतीं तरु को लताएँ
बादलों की बाँह में बँधकर बिजलियाँ
कह रही हैं कसमसाहट की कथाएँ
काम दहका हुआ है, कामिनी दहकी हुई है
आओ हम भी इस दहक में दहक जाएँ

चांद, तारे, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र सारे
गा रहे जो गीत हम भी गुनगुना लें
काम के इस ताप में ख़ुद को तपाकर
भावना के स्वर्ण को कुन्दन बना लें
स्वप्न चहका हुआ है, कल्पना चहकी हुई है
आओ हम भी इस चहक में चहक जाएँ

प्रेम उत्सव में मगन सारी दिशाएँ
तुम भला क्यों दूर बैठे हो छिटककर
भाव को विस्तार देने के क्षणों में
क्या रहोगे यूँ स्वयं में ही सिमटकर
राग लहका हुआ है, रागिनी लहकी हुई है
आओ हम भी इस लहक में लहक जाएँ

-कीर्ति काले

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *