आग का अपना-पराया क्या ?
- Chirag Jain
- Nov, 10, 2021
- Shishupal Singh Nirdhan
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तुम जहां देखो लगी उसको बुझाओ और घर की आग का सन्देश जाकर हो सके तो आँधियों को मत सुनाओ आग का अपना-पराया क्या ? हो गया है पीढ़ियों का रक्त पानी शीर्षक से हट गई सारी कहानी भृंग बनकर फूल पर मंडरा रहे हैं वासना के उत्सवों मे गा रहे हैं नियम-संयम के नगर मे लौटकर अब द्रष्टि पर तुम लाज का पहरा बिठाओ आग का अपना-पराया क्या ? राख बनकर रह न जाए घर हमारा आग से बढकर हमे है डर तुम्हारा देश का नैतिक पतन उत्थान पर है सभ्यता इस देश की प्रस्थान पर है आचरण बिलकुल अपावन हो चुके हैं हो सके तो आदमी बनकर दिखाओ आग का अपना - पराया क्या? ज़िन्दगी मिलती नहीं है दूध-धोई त्याग की अब आग मे तपता न कोई स्वार्थ का हर सांस पर पहरा हुआ है न्याय डर से लोगों के बहरा हुआ है ज्ञान का काजल लगाकर आँख में अब आज घर की आग से घर को बचाओ आग का अपना-पराया क्या? देश का धन लूटकर घर भर रहे हैं किन्तु वे चर्चा पराई कर रहे हैं आग है चारों तरफ पानी नहीं है एक भी बादल यहाँ दानी नहीं है तुम धरा की प्यास पर बरसो न बरसो इस चमन पर बिजलियाँ तो मत गिराओ आग का अपना-पराया क्या? साधना मे उम्र को खोया गया है इन विचारों को बहुत धोया गया है हो गया है प्राण का जब दर्द- वंशी तब ग़ज़ल और गीत को बोया गया है देश के हित के लिए हम लिख रहे हैं हो सके तो साज़ लेकर साथ गाओ आग का अपना-पराया क्या? फूल-कांटे साथ होते हैं चमन मे किसलिए उत्पात का है ज्वार मन में खो गए श्रृंगार में सब गाँव-गलियाँ निरवसन होने चलीं हैं आज कलियाँ सभ्यता सरिता किसी भी देश की हो तुम न उसके घाट पर नंगे नहाओ आग का अपना-पराया क्या? -शिशुपाल सिंह निर्धन
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