पेड़ और कुल्हाड़ी

पेड़ और कुल्हाड़ी

एक दिवस 
एक कुल्हाड़ी ने पेड़ से कहा-
'अपने बीच हमेशा 
छत्तीस का आंकड़ा रहा। 
आज तुम्हारा आखिरी दिन है
जल्दी बोलो, मैं बड़ी या तुम?'

पेड़ बोला-
'आदमी का दुम!
तू आज भी हाथों की ग़ुलाम है
और हम अपने पाँव पर खड़े हैं
इसलिए तू नहीं हम बड़े हैं। 

तेरे पास देने को सिर्फ़ कान्धे हैं 
हमने ज़िंदगी के पाँव में घुँघरू बांधे हैं  
तू तो 
सब कुछ बर्बाद कर देने वाली आँधी है
तूने कब पेड़ों को राखी बाँधी है?

तू बेशक विनाश में मुझसे बड़ी हो सकती है
मग़र निर्माणों में मैं तुझसे बड़ा हूँ,
जब तू कायरों की तरह घर में छिपी थी
तब मैं तूफानों से लड़ा हूँ। 
ये कड़कती बिजलियाँ

ये अँधेरी रात
सर्दी, गर्मी, बरसात
मैं तो 
सब कुछ हँसकर सह लेता हूँ
लोग मुझे पत्थर मारते हैं
और मैं 
उनको मीठे-मीठे फल देता हूँ

कोई गर्भवती चिड़िया 
यदि मुझ पर
अपना घोंसला नहीं बनाती
तो अपने बच्चों को 
आदमी से कैसे बचाती!

अगर हम 
पेड़ बन के धरती पर नहीं खिलते
तो खाने को धतूरे भी नहीं मिलते। 

विज्ञान 
लाख अपनी उपलब्धियों पर फूल जाए
अगर हम सांस नहीं छोड़ें 
तो आदमी सांस लेना भूल जाए। 

क्या बात करती है हमसे तनकर
हम तो दरवाज़ा बनकर
महलों से झोंपड़ी तक के काम आते हैं
जिनकी इज़्ज़त लूटनी चाहिए
उनकी भी बचाते हैं
इसलिए बड़े प्यार से हमें पालते हैं
हमारा मुँह बंद करने को ताला डालते हैं 
कभी-कभी 
हम भी उनके साथ 
कीचड़ में सनते हैं
बढ़ई के हाथों 
जाने क्या से क्या बनते हैं!

टेबल-कुर्सी तक तो ठीक था
मग़र ये डबल बेड के पलंग
जिन पर पश्चिमी सभ्यता का रंग
उन पर अभिसार के ऐसे-ऐसे ढंग
कभी-कभी तो शर्म से गड़ना पड़ता है
जो पावन दृश्य नहीं देखना चाहिए
वो भी देखना पड़ता है। 

बड़े भाग्यशाली थे हमारे दादाश्री
उनके भी क्या हल्ले थे
जब वो किसी महल की 
खिड़की के पल्ले थे
कोई मृगनयनी 
उन्हें हौले से खोलती थी
उनको छूकर पिया-पिया बोलती थी
मन-मयूर खिलता था
हमें तो देखना भी नहीं नसीब
उनको छूने का आनंद तो मिलता था। 

और ये आजकल की फ़िल्में
सेक्स के सिवा क्या रखा है इनमें
ये रहस्य आज तक नहीं खुलता है
क्या हीरो का चेहरा 
हमसे मिलता-जुलता है
जो हीरोइन दौड़-दौड़ के 
जंगल में आती है
हमसे लिपट-लिपट कर गाना गाती है
घड़ी-घड़ी मेरा दिल धड़के
और अगर ऐसे में हमारे जज़्बात फड़के
हम पेड़ से आदमी बन गए तो?
पेड़ का भी मन चंचल हो सकता है
इसी जंगल में मंगल हो सकता है।' 

पेड़ बोला -
'पिछले जनम में हम भी मनुष्य थे
सच बोले तो पेड़ हो गए
उस दिन हमारी भी छाती फटती है
जब किसी कुल्हाड़ी से पेड़ ही नहीं
बेगुनाहों की गर्दन भी कटती है। 

नॉन-वेजीटेरियन! 
तेरे वंशज लोहे से बन्दूक
बड़े-बड़े परमाणु बम 
और समूची मानव-जाति को
नष्ट करने वाली मिसाइलें बनाते हैं
और मेरे वंशज 
मरते हुए लक्ष्मण को भी
संजीवनी सुँघाते हैं। 

अब मैं द्वापर नहीं, त्रेता हूँ 
तू प्राण लेती है
मैं जीवन देता हूँ 

उस दिन पूरे जंगल में मातम मनता  है 
जब कोई पेड़ चिता की लकड़ी बनता है 
मन मारकर दायित्व निभाना पड़ता है 
जिनको डुबा-डुबा कर मारना चाहिए 
उनको भी जलाना पड़ता है 

मुझे गर्व है 
अपने पूर्वजों पर 
जिनकी छाया में
वेदों ने जन्म लिया
कृष्ण ने गीता का ज्ञान दिया
तुलसीदास राम को पा गए
बुद्ध ने ज्ञान प्राप्त किया 
और मुझमें समा गए। 

मेरे पत्ते-पत्ते पर
भगवान महावीर के ऑटोग्राफ हैं
अब तो स्वीकार कर ले
हम तेरे बाप के भी बाप हैं। 

मेरी ही मृदुल छाया में 
कंचन जैसी काया में
संस्कृति ने पहली बार आँख खोली थी
जब नारी ने पुरुष को देखकर
मीठी चितवन घोली थी
ये उसी मीठी चितवन की मार है
आदमी कल भी बेकार था
और आज भी बेकार है
तुझे याद है वो कदम्ब का पेड़
जिसकी शीतल छाया में
कृष्ण की बाँसुरी ने
पहली-पहली बार
राधा के होंठों को छुआ था
उस बाँसुरी का जन्म भी तो
हमीं से हुआ था
जिसके स्वरों से आज भी
भारत की आत्मा झाँकती है
और धरती
पाँवों में घुुंघरू बांधकर नाचती है
हमने गीता को आदर्श माना
तो आज तक पछता रहे हैं
कर्म हमने किये
और फल हरामखोर खा रहे हैं
भौतिकता ने जीवन को ऐसा डसा
शरीर ज़िन्दा है, आदमी चल बसा।
हर धर्म के लोगों ने 
मुझ पर वार किया
मग़र मैंने 
छाया देने से 
कब किसी को इनकार किया?

फिर भी ये एहसान फ़रामोश 
मुझे डाँटता है
पेड़ों ने कभी आदमी को नहीं काटा
फिर आदमी क्यों पेड़ों को काटता है?

भला आदमी यदि अक्ल से काम लेता
तो जिस कुल्हाड़ी से पेड़ों को काटता है
उससे देशद्रोहियों की गर्दनें काट लेता
जो देश की सुरक्षा को बेचें
वो बड़े-बड़े पद पायें
अपराधी रिहा कर दिये जाएँ
अब भी वक़्त है, मान जाएँ
इन काली भेड़ों को पहचान जाएँ
वरना सोये के सोये रह जाएंगे
अपने-अपने मकानोें में
हमारी दास्तां तक भी न होगी दास्तानों में
क्षमा उनको, 
जो मुझे काटकर चूल्हा बालते हैं
या मुझे जलाकर अपना पेट पालते हैं
मग़र वो क्यों नहीं अपना उद्धार करते
जिन हाथों ने कुल्हाड़ी दी है
वो क्यों नहीं
पलटकर उन पर वार करते
हम रात को बारह बजे आज़ाद हुए थे
इसलिये अंधेरे में धोखा खा गये
लाल मुँह के बन्दर गये
तो काले मुँह के बन्दर आ गये।
वो भी क्या दिन थे
जब हमसे बनी कुर्सियों पर
महात्मा गांधी, पंडित नेहरू
सुभाष, पटेल और शास्त्री 
जैसे महापुरुष बैठा करते थे
अब उन्हीं कुर्सियों पर ऐसे गुल खिले
कि सुबह-सुबह उनकी फोटो देख लो
तो दिन भर खाना नहीं मिले
ये बगिया सभी ने उजाड़ी
मैं ख़ूब जानता हूँ कुल्हाड़ी
यदि तू अपनी वाली पर आ गई
तो चुन-चुनकर मेरी शाखों को छाँटेगी
मग़र मेरे भीतर जो प्यार की ख़ुश्बू है
उसको कैसे काटेगी?

मेरी अंतिम इच्छा भी सुन ले
तू मुझे चाहे जिस काम में लाना
मग़र किसी शहीद की फाँसी का
तख़्ता मत बनाना!
आदमी 
पेड़ों की छाया से भी क़तरायेगा।
फिर किसी पेड़ पर बसंत नहीं आएगा।'

कुल्हाड़ी ने 
जम के ठहाका लगाया
और बड़ी निर्ममता से 
उसी पेड़ को काटा
और उसके कान में 
धीरे से फुसफुसाया-
'ओ वृक्षाधिराज! 
कैसी रही आज
अब बोलो किस मायने में 
मुझसे बड़े हो?
धराशाई होकर 
मेरे चरणों में पड़े हो।'

पेड़ बोला- 
'नादान! 
बेशक़ मुझे अपने कटने के ग़म है
पर तूने मुझे काटा है, 
ये तेरा भ्रम है
तेरे भीतर 
जो लकड़ी का दस्ता है
उससे 
मेरा ख़ून का रिश्ता है। 
उसी के दम पर तूने मुझे काटा है
अहिंसा ने फिर 
हिंसा के चरणों को चाटा है
अगर तू काटती मुझको 
तो कोई ग़म नहीं होता
जो अपनों से पहुंचता है 
वो सदमा कम नहीं होता। 
काटना तेरा धर्म 
और कटना मेरी नियति है
ये बात हर इतिहास में मिलती है
जब -जब भी कोई घर का भेदी
दुश्मनों से मिल जाता है
बड़े से बड़े साम्रज्य का सूरज भी ढल जाता है
वही हाल हमारा है
हमें ग़ैरों ने नहीं
हमेशा अपनों ने मारा है।

-माणिक वर्मा

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