सीमाएं
- Chirag Jain
- Nov, 10, 2021
- Manik Verma
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मैं सैनिक संगीन संभाले दूर-दूर तक दृष्टि डाले हर इक पाँव की आहट लेता सीमाओं पर पहरा देता खड़ा-खड़ा मैं सोच रहा हूँ धरती पर सीमाएँ क्यों हैं अनचाही रेखाएँ क्यों हैं क्या मानव को मानव का विश्वास नहीं है सीमाओं के इधर-उधर क्या इन्सानों का वास नहीं है आदिम युग से लेकर अब तक अपना सब कुछ देकर अब तक जो पाया वो सभी लुट गया विश्वासों का गला घुट गया खड़ा-खड़ा मैं सोच रहा हूँ मानव का मन काट-काटकर सीमाओं में बाँट-बाँटकर इतनी उन्नति की हमने यह मानवता लाचार हो गयी बर्बर से हम सभ्य हुए तो ऊँची और दीवार हो गयी इस धरती के रहनेवाले पीड़ाओं को सहनेवाले इतना रक्त बहाने पर भी बार-बार मिट जाने पर भी क्यों हैं इतने मौन, देखकर डर लगता है इन्हें युद्धोन्माद नहीं है किन्तु इन्हें क्या याद नहीं है जब-जब अत्याचार से पीड़ित मानव का मन मौन रहा है तब-तब इस धरती पर लाखों इन्सानों का ख़ून बहा है युद्धों को त्यागे, न त्यागे कोई जागे या न जागे लेकिन मैं तो जाग रहा हूँ ख़ुद से डरकर भाग रहा हूँ समझ रहा हूँ, उस दिन मुझको चैन आएगा जिस दिन कोई कह जाएगा पहला हाथ हमारा है, जो संगीनों को छोड़ रहा है मानवता के लिये बन्द सब दीवारों को तोड़ रहा है सोये मानव जाग जाएंगे बन्दी सारे भाग जाएंगे सीमाएँ सब टूट जाएंगी ये संगीनें छूट जाएंगी ऐसी घड़ियाँ कब आएंगी जब ये राते ढल जाएंगी संगीनें हल बन जाएंगी उस दिन कितना गर्व करूंगा, जब पौधों में प्राण भरूंगा विध्वंसों के लिये नहीं मैं निर्माणों के लिये मरूंगा -माणिक वर्मा
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