सैनिक का पत्र
- Chirag Jain
- Oct, 07, 2012
- Vineet Chauhan
- No Comments
माँ से...
माँ तुम्हारा लाड़ला रण में अभी घायल हुआ है
देख उसकी शूरता ख़ुद शत्रु भी कायल हुआ है
रक्त की होली जलाकर मैं प्रलयकर दिख रहा हूँ
माँ, उसी शोणित से तुमको पत्र अन्तिम लिख रहा हूँ
युद्ध भीषण था, मग़र ना इंच भी पीछे हटा हूँ
माँ तुम्हारी थी शपथ, मैं आज इंचों में कटा हूँ
एक गोली वक्ष पर कुछ देर पहले ही लगी है
माँ क़सम दी थी जो तुमने, आज मैंने पूर्ण की है
छा रहा है सामने लो आँख के मेरे अन्धेरा
पर उसी में दिख रहा है मुझे इक नूतन सवेरा
कह रहे हैं शत्रु भी, मैं इस तरह शैदा हुआ हूँ
लग रहा है, सिंहनी की गोद से पैदा हुआ हूँ
यह न सोचो माँ कि मैं चिर नींद लेने जा रहा हूँ
मैं तुम्हारी कोख़ से फिर जन्म लेने आ रहा हूँ
पिता से...
मैं तुम्हें बचपन में पहले ही बहुत दुःख दे चुका हूँ
और कन्धों पर खड़ा हो, आसमां को छू चुका हूँ
तुम सदा कहते न थे - "यह ऋण तुझे भरना पड़ेगा
एक दिन कन्धों पे अपने ले मुझे चलना पड़ेगा"
पर पिता, मैं भार अपना तनिक हल्का कर न पाया
तुम मुझे करना क्षमा, मैं पितृ-ऋण को भर न पाया
हूँ बहुत मजबूर, यह ऋण ले मुझे मरना पड़ेगा
अन्त में भी आपके कन्धे मुझे चढ़ना पड़ेगा
भाई से...
सुन अनुज रणवीर, गोली बाँह में जब जा समाई
ओ मेरी बायीं भुजा, उस वक़्त तेरी याद आई
मैं तुम्हें बाँहों में भर, आकाश दे सकता नहीं हूँ
लौटकर भी आऊंगा, विश्वास दे सकता नहीं हूँ
पर अनुज विश्वास रखना, मैं नहीं थक कर पड़ूंगा
तुम भरोसा पूर्ण रखना, श्वास अन्तिम तक लड़ूंगा
अब तुम्हीं को सौंपता हूँ, बस बहन का ध्यान रखना
जब पड़े उसको ज़रूरत, वक़्त पर सम्मान करना
तुम उसे कहना कि रक्षा-पर्व जब भी आएगा
भाई अम्बर में नज़र चन्दा-सा तब भी आएगा
पत्नी से...
अन्त में तुमसे प्रिये मैं आज भी कुछ मांगता हूँ
मांग में सौभाग्य के अनगिन सितारे टांकता हूँ
तुम अमर सौभाग्य की बिन्दिया सदा माथे सजाना
हाथ में चूड़ी पहन कर पाँव में मेहँदी लगाना
तुम नहीं वैधव्य की प्रतिमूर्ति या कि साधिका हो
तुम अमर बलिदान की पुस्तक की पावन भूमिका हो
जानता हूँ, बालकों से प्रश्न कुछ सुलझे न होंगे
सैकड़ों ही प्रश्न होंगे जिनमें क्या उलझे न होंगे
पूछते होंगे कि पापा हैं कहाँ, कब आएंगे?
और हमको साथ लेकर घूमने कब जाएंगे?
पापा हमको छोड़कर जाने कहाँ बैठे हुए हैं!
क्या उन्हें मालूम है कि उनसे हम रूठे हुए हैं?
तुम उन्हें कहना कि ज़िद्द पे ऐसे अड़ जाते नहीं हैं
ज़्यादा ज़िद्द करते हैं, उनके पापा घर आते नहीं हैं
मैं यहाँ कुलदीप के हित शौर्य किस्से गढ़ रहा हूँ
एक आधी-सी प्रतिज्ञा उसके हिस्से कर रहा हूँ
- विनीत चौहान
This post is visited : 1,301