अब उसकी कुछ आस नहीं है

अब उसकी कुछ आस नहीं है

सूखी हुई नदी के तट पर नौका लेकर आने वाले
जिस कलकल को ढूंढ रहा है
अब उसकी कुछ आस नहीं है

चलते-चलते बहा पसीना, ठहर-ठहर कर नदिया सूखी
तू होता जाता था लथपथ, वो होती जाती थी रूखी
लहर-लहर लहरा-लहरा कर तुझको पास बुलाने वाले
जिस आँचल को ढूंढ रहा है
अब उसकी कुछ आस नहीं है

माना तूने इन राहों पर, दर्द सहा है, चुभन सही है
लेकिन तुझको इंतज़ार की घड़ियों का एहसास नहीं है
अपनी उम्मीदों की नौका, मन्ज़िल तक पहुंचाने वाले
जिस समतल को ढूंढ रहा है
अब उसकी कुछ आस नहीं है

हालातों से लड़ते-लड़ते कितनी नौकाएं टूटी हैं
उनका क्या चर्चा करना है, जिनसे धाराएँ रूठी हैं
इस क्षण का सारा सन्नाटा अपने भीतर पाने वाले
जिस हलचल को ढूंढ रहा है
अब उसकी कुछ आस नहीं है

कौन सही है, कौन ग़लत है -अब इसमें कुछ सार नहीं है
यही अंत है इस किस्से का और अधिक विस्तार नहीं है
सही-ग़लत की उलझी-उलझी गुत्थी को सुलझाने वाले
तू जिस हल को ढूंढ रहा है
अब उसकी कुछ आस नहीं है

इस तट पर जाने कितने ही प्राण पड़े हैं पत्थर होकर
तू भी वापिस ले जाएगा जग में अपनी काया ढोकर
जीवित होने के अभिनय से दुनिया को भरमाने वाले
जिस इक पल को ढूंढ रहा है
अब उसकी कुछ आस नहीं है

© चिराग़ जैन

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