मैं सतह पर जी न पायी

मैं सतह पर जी न पायी

मैं सतह पर जी न पायी और तुम उतरे न गहरे

मैं रही मैं, तुम रहे तुम, तुम सघन तो मैं तरल
बर्फ़ से होते सघन तो बात हो जाती सरल
मैं उमगती वाण-गंगा, और तुम पाषाण ठहरे

भीड़ में तो हूँ मग़र मैं भीड़ का हिस्सा नहीं
भूलना सम्भव न होगा, सिर्फ़ मैं क़िस्सा नहीं
मैं नहीं उनमें, हुए जो चेहरों के बीच चेहरे

अधर से आयी नयन में, मैं वही अभिव्यक्ति हूँ
भक्ति बनने की क्रिया में चल रही अनुरक्ति हूँ
मैं निरन्तर साधना हूँ और तुम सपने सुनहरे

मुक्त नभ को छोड़ भूले से अरे, क्या चुन लिया
एक पिंजरा देह का था, एक ख़ुद ही बुन लिया
आर्त स्वर हैं प्रार्थना के हो गये पर देव बहरे

-इन्दिरा गौड़

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