नाम बड़े और दर्शन छोटे
- Chirag Jain
- Nov, 10, 2021
- Kaka Hathrasi
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नाम-रूप के भेद पर कभी किया है ग़ौर? नाम मिला कुछ और तो, शक्ल-अक्ल कुछ और शक्ल-अक्ल कुछ और, नैनसुख देखे काने बाबू सुन्दरलाल बनायें ऐंचकताने कह ‘काका’ कवि, दयारामजी मारें मच्छर विद्याधर को भैंस बराबर काला अक्षर मुंशी चन्दालाल का तारकोल-सा रूप श्यामलाल का रंग है, जैसे खिलती धूप जैसे खिलती धूप, सजे बुश्शर्ट हैण्ट में ज्ञानचन्द छ्ह बार फेल हो गए टैन्थ में कह ‘काका’ ज्वालाप्रसादजी बिल्कुल ठंडे पंडित शान्तिस्वरूप चलाते देखे डंडे देख, अशर्फ़ीलाल के घर में टूटी खाट सेठ छदम्मीलाल के मील चल रहे आठ मील चल रहे आठ, कर्म के मिटें न लेखे धनीरामजी हमने प्रायः निर्धन देखे कह ‘काका’ कवि, दूल्हेराम मर गए कुँआरे बिना प्रियतमा तड़पें प्रीतमसिंह बिचारे दीन श्रमिक भड़का दिये, करवा दी हड़ताल मिल-मालिक से खा गए रिश्वत दीनदयाल रिश्वत दीनदयाल, करम को ठोंक रहे हैं ठाकुर शेरसिंह पर कुत्ते भौंक रहे हैं ‘काका’ छ्ह फिट लम्बे छोटूराम बनाये नाम दिगम्बरसिंह वस्त्र ग्यारह लटकाये पेट न अपना भर सके जीवन-भर जगपाल बिना सूंड के सैकड़ों मिलें गणेशीलाल मिलें गणेशीलाल, पैंट की क्रीज़ सम्हारी बैग कुली को दिया चले मिस्टर गिरिधारी कह ‘काका’ कविराय, करें लाखों का सट्टा नाम हवेलीराम किराए का है अट्टा दूर युद्ध से भागते, नाम रखा रणधीर भागचन्द की आज तक सोई है तक़दीर सोई है तक़दीर, बहुत-से देखे-भाले निकले प्रिय सुखदेव सभी, दुःख देनेवाले कह ‘काका’ कविराय, आँकड़े बिल्कुल सच्चे बालकराम ब्रह्मचारी के बारह बच्चे चतुरसेन बुद्धू मिले, बुद्धसेन निर्बुद्ध श्री आनन्दीलालजी रहें सर्वदा क्रुद्ध रहें सर्वदा क्रुद्ध, मास्टर चक्कर खाते इन्सानों को मुंशी, तोताराम पढ़ाते कह ‘काका’, बलवीरसिंहजी लटे हुए हैं थानसिंह के सारे कपड़े फटे हुए हैं बेच रहे हैं कोयला, लाला हीरालाल सूखे गंगारामजी, रूखे मक्खनलाल रूखे मक्खनलाल, झींकते दादा-दादी निकले बेटा आसाराम निराशावादी कह ‘काका’, कवि भीमसेन पिद्दी-से दिखते कविवर ‘दिनकर’ छायावादी कविता लिखते आकुल-व्याकुल दीखते शर्मा परमानन्द कार्य अधूरा छोड़कर भागे पूरनचन्द भागे पूरनचन्द, अमरजी मरते देखे मिश्रीबाबू कड़वी बातें करते देखे कह ‘काका’ भण्डारसिंहजी थोते-थोते बीत गया जीवन विनोद का रोते-धोते शीला जीजी लड़ रही, सरला करती शोर कुसुम, कमल, पुष्पा, सुमन निकलीं बड़ी कठोर निकलीं बड़ी कठोर, निर्मला मन की मैली सुधा सहेली अमृतबाई सुनी विषैली कह ‘काका’ कवि, बाबूजी क्या देखा तुमने बल्ली जैसी मिस लल्ली देखी है हमने तेजपालजी भौंथरे, मरियल-से मलखान लाला दानसहाय ने करी न कौड़ी दान करी न कौड़ी दान, बात अचरज की भाई वंशीधर ने जीवन-भर वंशी न बजाई कह ‘काका’ कवि, फूलचन्दजी इतने भारी दर्शन करके कुर्सी टूट जाये बेचारी खट्टे-खारी-खुरखुरे मृदुलाजी के बैन मृगनैनी के देखिए चिलगोजा-से नैन चिलगोजा-से नैन, शान्ता करती दंगा नल पर न्हातीं गोदावरी, गोमती, गंगा कह ‘काका’ कवि, लज्जावती दहाड़ रही है दर्शनदेवी लम्बा घूंघट काढ़ रही है कलियुग में कैसे निभे पति-पत्नी का साथ चपलादेवी को मिले बाबू भोलानाथ बाबू भोलानाथ, कहाँ तक कहें कहानी पंडित रामचन्द्र की पत्नी राधारानी ‘काका’ लक्ष्मीनारायण की गृहणी रीता कृष्णचन्द्र की वाइफ बनकर आई सीता अज्ञानी निकले निरे, पंडित ज्ञानीराम कौशल्या के पुत्र का रक्खा दशरथ नाम रक्खा दशरथ नाम, मेल क्या ख़ूब मिलाया दूल्हा सन्तराम को आई दुलहिन माया ‘काका’ कोई-कोई रिश्ता बड़ा निकम्मा- पार्वतीदेवी है शिवशंकर की अम्मा पूँछ न आधी इंच भी, कहलाते हनुमान मिले न अर्जुनलाल के घर में तीर-कमान घर में तीर-कमान, बदी करता है नेका तीर्थराज ने कभी इलाहाबाद न देखा सत्यपाल ‘काका’ की रक़म डकार चुके हैं विजयसिंह दस बार इलेक्शन हार चुके हैं सुखीरामजी अति दुखी, दुखीराम अलमस्त हिकमतराय हकीमजी रहें सदा अस्वस्थ रहें सदा अस्वस्थ, प्रभु की देखो माया प्रेमचन्द में रत्ती-भर भी प्रेम न पाया कह ‘काका’ जब व्रत-उपवासों के दिन आते, त्यागी साहब, अन्न त्यागकार रिश्वत खाते रामराज के घाट पर आता जब भूचाल लुढ़क जायें श्री तख्तमल, बैठें घूरेलाल बैठें घूरेलाल, रंग क़िस्मत दिखलाती इतरसिंह के कपड़ों में भी बदबू आती कह ‘काका’, गम्भीरसिंह मुँह फाड़ रहे हैं महाराज लाला की गद्दी झाड़ रहे हैं दूधनाथजी पी रहे सपरेटा की चाय गुरु गोपालप्रसाद के घर में मिली न गाय घर में मिली न गाय, समझ लो असली कारण- मक्खन छोड़ डालड़ा खाते बृजनारायण ‘काका’ प्यारेलाल सदा गुर्राते देखे हरिश्चन्द्रजी झूठे केस लड़ाते देखे रूपराम के रूप की निन्दा करते मित्र चकित रह गए देखकर कामराज का चित्र कामराज का चित्र, थक गए करके विनती यादराम को याद न होती सौ तक गिनती कह ‘काका’ कविराय, बड़े निकले बेदर्दी भरतराम ने चरतराम पर नालिश कर दी नाम-धाम से काम का क्या है सामंजस्य किसी पार्टी के नहीं झंडाराम सदस्य झंडाराम सदस्य, भाग्य की मिटें न रेखा स्वर्णसिंह के हाथ कड़ा लोहे का देखा कह ‘काका’, कण्ठस्थ करो, यह बड़े काम की माला पूरी हुई एक सौ आठ नाम की -काका हाथरसी
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