हीर बूढ़ी हो गई है
- Manisha Shukla
- Nov, 02, 2021
- Manisha Shukla
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हर प्रतीक्षा अब समय की देहरी को लाँघती है देह के संग अब हृदय की पीर बूढ़ी हो गई है बिन तुम्हारे भी धड़कता है कलेजा; जान पाई अब नहीं रहती वहाँ पर एक भी धड़कन पराई हो गया अरसा तुम्हारी याद से बिछड़े हुए भी आज पहली बार बिन रोए मुझे भी नींद आई जो हमें बाँधे हुए थी एक कच्ची डोर जैसे अब समर्पण की वही ज़ंजीर बूढ़ी हो गई है आँसुओं में अब हँसी के फूल भी खिलने लगे हैं एक कमरे से मुझे मेरे निशाँ मिलने लगे हैं पत्तियों की देह पर फिर ओस के चुंबन सजे हैं दूर; उड़ने को क्षितिज के पँख भी हिलने लगे हैं अब विरह की आग में वैसी अगन बाक़ी नहीं है हो न हो अब प्यार की तासीर बूढ़ी हो गई है साथ कैसा भी रहे, मिलता वही जो छूटता है प्रेम होते ही लकीरों से विधाता रूठता है है अमर वो ही कहानी जो रही आधी-अधूरी गीत भी मीठा वही जिसमें कलेजा टूटता है तुम उधर राँझा हुए लौटे न अब तक जोग लेकर आँख रस्ते पर गड़ाए हीर बूढ़ी हो गई है © मनीषा शुक्ला
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