दीप भोर तक जले
- Chirag Jain
- Nov, 10, 2021
- Shishupal Singh Nirdhan
- No Comments
गगन की गोद में धरा, धरा पे तम पले घोर तम की जब तलक न ये शिला गले आदमी हो आदमी से प्यार है अगर कामना करो कि दीप भोर तक जले फूल से कहो सभी को गंध फाँट दे शूल से कहो कहीं चुभन न बाँट दे गीत दो जहाँ भी ज़िंदगी उदास है प्रीत हो उन्हें, न जिनके कोई पास है मनुष्यता की है शपथ न चैन से रहो अश्रु जब तलक किसी भी आँख से ढले कामना करो कि दीप भोर तक जले हों मानवीय भावना सभी के प्राण में उदासियां न हों पड़ोस के मकान में दुःखी की भावना उदार दृष्टि से पढ़ो निराकरण करे जो ऐसा व्याकरण गढ़ो पानीदार हो अगर तो मेघ बन झरो प्यास जब तलक किसी भी कंठ को छले कामना करो कि दीप भोर तक जले ऊँचे-ऊँचे जो खड़े हुए ये श्रंग हैं मन से तंग हैं ये घाटियों पे व्यंग हैं ऊँचाइयों का सिलसिला भले ही कम न हो ऐसा भी हो कहीं किसी की आँख नम न हो बन के सूर्य की किरण तलाश में रहो कालिमा का वंश जब तलक कहीं पले कामना करो कि दीप भोर तक जले श्रेष्ठ है वो जिसकी भावना पवित्र है वंदनीय है न जो भी दुष्चरित्र है समाज और देश के लिए जियो मरो जो हो सके तो आदमी की वंदना करो भोग-भावना को इतना कम करो कि जो अर्थ की उपासना न शब्द को खले कामना करो कि दीप भोर तक जले प्रार्थना सुनें नहीं वो क्या समर्थ है समर्थता ही क्या अगर कहीं अनर्थ है दीनता के दंश की दवा-दुआ नहीं दुआ से दीनता का भी भला हुआ नहीं श्रम के देवता को नित्य तुम नमन करो द्वार-द्वार से जो पीर प्राण की टले कामना करो कि दीप भोर तक जले -शिशुपाल सिंह निर्धन
This post is visited : 383