आँचल भर सुहाग
- Chirag Jain
- Nov, 10, 2021
- Maya Govind
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तुम एक बार प्रिये आ जाओ, तो आँचल भर सुहाग ओढूँ काजल आंजूँ, पायल बांधूँ, दृग में झाँकूँ दर्पण तोड़ूं आशाएँ अलख जगाती हैं, बीमार कल्पना के द्वारे अधरों ने बन्द किवाड़ किये, नैना जीते बिना हारे कोलाहल के बाज़ारों में, वंदन के छन्द बिके सारे ननदी जैसी नटखट संध्या, भर-भर सेंदुर ताने मारे तुम मेरा संबोधन वर लो, मैं टूटा चंदन तन जोड़ूँ तुम एक बार प्रिये आ जाओ, तो आँचल भर सुहाग ओढूँ कलियाँ चिटकें, डाली लचके, माली बिहँसे, भँवरे झूमें भँवरों के पंख पराग पगे, माली कलियाँ तोड़ें-चूमें इक रसिक और एक व्यापारी, इक लूटे, इक बेचे ऋतु में सम्मान सहित मुरझा जाती मैं खिलती अगर किसी बन में तुम पवन बनो मुझको छू दो, मैं जूठी पंखुरियाँ तोड़ूँ तुम एक बार प्रिये आ जाओ, तो आँचल भर सुहाग ओढूँ तेरे-मेरे, इसके-उसके, नाते-रिश्ते सब बँटे हुए ये कुछ कहता, वो कुछ कहता, बोली-अक्षर सब रटे हुए झूठे सपने कब तक देखूँ, डोली से साजन सटे हुए घबराकर उड़ना भी चाहूँ, तो पंख हमारे कटे हुए अधरों पर तुम आकाश धरो तो अँखियों के विषघट फोड़ूँ तुम एक बार प्रिये आ जाओ, तो आँचल भर सुहाग ओढूँ सिंदूर चढ़ाऊँ या मिट्टी, दोनों के नियम एक से हैं घूंघट में मुखड़ा छिपता है, चूनर और क़फ़न एक से हैं इस डोली और उस डोली के चढ़ने के शगुन एक से हैं दो बार आठ पग साथ चले, आठों के चलन एक से हैं तुम मन मधुबन का पथ दे दो तो मैं तन का मरघट छोड़ूँ तुम एक बार प्रिये आ जाओ, तो आँचल भर सुहाग ओढूँ -माया गोविन्द
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