ओ शरत्!

ओ शरत्!

ओ शरत्, अभी क्या ग़म है?
तू ही वसन्त से क्या कम है?
है बिछी दूर तक दूब हरी
हरियाली ओढ़े लता खड़ी
कासों के हिलते श्वेत फूल
फूली छतरी ताने बबूल
अब भी लजवन्ती झीनी है
मन्जरी बेर रस-भीनी है
कोयल न (रात वह भी कूकी
तुझ पर रीझी, बंसी फूँकी)
कोयल न, कीर तो बोले हैं
कुररी-मैना रस घोले हैं
कवियों की उपमा की आँखें
खंजन फड़काती है पाँखें
रजनी बरसाती ओस ढेर
देती भू पर मोती बिखेर
नभ नील, स्वच्छ, सुन्दर तड़ाग
तू शरत् न, शुचिता का सुहाग
ओ शरत्-गंग! लेखनी, आह!
शुचिता का यह निर्मल प्रवाह
पल-भर निमग्न इसमें हो ले
वरदान मांग, किल्वष धो ले!

-रामधारी सिंह दिनकर

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