माँ
- Chirag Jain
- Oct, 07, 2021
- Madhup Pandey
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माँ, सागर से तेरी उपमा देने के लिए कहता है मेरा मन परंतु उसी क्षण कुछ ध्यान आता है और वही मन हिचक जाता है क्योंकि सागर की गहराई तो तुझमें है और है वही धीरता गहन-गंभीरता परंतु यह भी उतना ही सही है कि सागर के खारेपन का ज़रा सा भी अंश तुझमें नहीं है। माँ तेरे दूध की मिठास सागर का सारा खारापन धो जाती हैै, और इसलिए सागर की उपमा तेरे सामने बिल्कुल व्यर्थ हो जाती है। माँ पर्वत से तेरी उपमा देने के लिए कहता है मेरा मन परन्तु उसी क्षण कुछ ध्यान आता है और वही मन हिचक जाता है क्योंकि पर्वतराज की ऊँचाई तो तुझमें है और है वही अचलता जिसका कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता परन्तु यह भी उतना ही सही है कि पर्वत की कठोरता का ज़रा सा भी अंश तुझमें नहीं है। माँ तेरे मन की मृदुलता में पर्वत की कठोरता खो जाती है और इसीलिए पर्वत की उपमा तेरे सामने बिल्कुल व्यर्थ हो जाती है। माँ गगन से तेरी उपमा देने के लिए कहता है मेरा मन परन्तु उसी क्षण कुछ ध्यान आता है और वही मन हिचक जाता है क्योंकि गगन का विस्तार तो तुझमें है और है वही विशालता निश्छल-निर्मलता परन्तु यह भी उतना ही सही है कि गगन की अंतहीन दूरी का ज़रा सा भी अंश तुझमें नहीं है। माँ तेरी गोद की समीपता में गगन की अंतहीन दूरी खो जाती है और इसीलिए गगन की उपमा तेरे सामने बिल्कुल व्यर्थ हो जाती है। माँ सूरज से तेरी उपमा देने के लिए कहता है मेरा मन परन्तु उसी क्षण कुछ ध्यान आता है और वही मन हिचक जाता है क्योंकि सूरज की ऊर्जा तो तुझमें है और है जन-जन को जीवन देने की क्षमता मन को छूने वाली ममता परन्तु यह भी उतना ही सही है कि सूरज की झुलसाने वाली तेज़ तपन का ज़रा सा भी अंश तुझमें नहीं है माँ तेरे आँचल की शीतलता में सूरज की सारी तपन खो जाती है और इसीलिए सूरज की उपमा तेरे सामने बिल्कुल व्यर्थ हो जाती है। माँ वैसे तो यह कवियों की लीक नहीं है परन्तु मुझे लगता है कि संसार के किसी भी उपमान से तेरी उपमा देना ठीक नहीं है। क्योंकि जैसे ही उपमा का उल्लेख आता है 'माँ' संबोधन के सामने 'उप' उपसर्ग जुड़ जाता है। माँ की महत्ता खो जाती है और माँ, फिर माँ नहीं रहती 'उप' 'माँ' हो जाती है। माँ अपने आप में एक ऐसा नाम है जिसे शब्दों में बांधना सचमुच ही कठिन काम है। देखिए ना, शिशु को सहेजती संवारती, संभालती जो थपकियों की थाप है उसमें आरोह, अवरोह, आलाप है। किशोर मन पर नेह लेखनी से लिखा जो काव्य-अनुबंध है वह स्वयं गीत है, ग़ज़ल है छंद है। युवा शिराओं में प्रतिक्षण प्रवाहित जो अमृतमय पेय है वह स्वयं पग है, पथ है, पाथेय है। 'माँ' यह शब्द स्वयं भाव है, भजन है, भक्ति है शौर्य है, साहस है, शक्ति है उत्सव, उत्साह, उमंग है आरती, अर्चन, अभंग है पूज्य-पवित्र है, पवन है सुंदर, सुखद, सुहावन है सुमन-सुगंध है, सुवास है मधुरिम मधुमय मधुमास है धीर है, ध्यान है, ध्येय है शांति है, शिवा है, श्रेय है पल्लव, पुष्प है, पराग है तप-तपस्या है, त्याग है साधना, सेवा, समर्पण है दृग, दृगंचल, दर्पण है दृष्टि है, दृश्य है, दर्शन है आँख, आकृति, आकर्षण है भूत, वर्तमान, भविष्य है हवन है, हवि है, हविष्य है सुर है, सरगम है, साज है प्रेयर, प्रार्थना, नमाज़ है उपदेश, आयत, श्लोक है लोक, इहलोक, परलोक है मरियम, फ़ातिमा, सीता है बाइबिल, क़ुरआन, गीता है गुण-गुणज्ञ है, गुणवंत है रस-रसज्ञ है, रसवंत है दिक्, दिशा है, दिगन्त है आदि, अनादि है, अनन्त है वह रस है, रंग है, रूप है माँ अपने-आप में पूर्णता का प्रतिरूप है। माँ एक स्पर्श है मैं सोचता हूँ कि अगर यह स्पर्श नहीं होता तो हमें कभी नहीं आता किसी के रिसते हुए घाव को देखकर सिसकी भरना। क्योंकि हम देख ही नहीं पाते बच्चे को चोट लगने पर ममता की आँखों से आँसू का झरना। (शरीर विज्ञान तो हमें सिर्फ़ इतना बताता है कि जिसे चोट लगती है आँसू सिर्फ़ उसी की आँख में आता है) वह माँ है जो अपनी ममता से संवेदना के धरातल पर जीना सिखाती है और इसी कारण दूसरों का दुःख-दर्द देखकर हमारी आँख भर आती है। माँ, एक शब्द है मैं सोचता हूँ अगर यह शब्द नहीं होता तो सारी सभ्यता गूंगी रह जाती क्योंकि हमें कभी बोलने की कला ही नहीं आती। वह माँ है जिसने हमारे तुतलाते बोलों को भी इतनी आत्मीयता से अपनाया कि यह मानव बोलने की कला सीख पाया। माँ, एक एहसास है मैं सोचता हूँ अगर यह एहसास नहीं होता तो हम जड़वत् बने रहते न किसी का दुःख सुनते न किसी से दुःख कहते। वह माँ है जिसने हमारे मन में यह एहसास जगाया कि हमें किसी के दर्द में डूबने के सलीक़ा तो आया। माँ, एक विश्वास है मैं सोचता हूँ अगर यह विश्वास नहीं होता तो हम इतने बड़े नहीं होते। अपने ही पैरों पर खड़े नहीं होते। वह माँ है जिसने हमें गिर-गिर कर उठना सिखाया उठ-उठ कर चलना सिखाया चल-चल कर जो हम सभ्यता के शिखर तक आए हैं ये सारे रास्ते हमें उस माँ के ममत्व ने ही बताए हैं। मैं सोचता हूँ, अगर माँ नहीं होती तो कैसे ढल पाता सभ्यता की सीप में मनुजता का मोती! हम अपने ही आप से अनजाने रह जाते और हमें कभी नहीं मिल पाते ये घर-परिवार ये नेह-दुलार जीवन का बोध ममता की गोद तुतलाते बोल बातें अनमोल पुलक कर मैया लेती बलैया मोहक खिलौने मन-मृगछौने सुरीली मैना मीठे रस-बैना चहकती चिरैया गाती गौरैया गुड्डा और गुड़िया दादी माँ बुढ़िया पलकों की छाँव मनचाहा ठाँव दूध की कटोरी रसभीनी लोरी चंदा सा मामा रिश्तों का जामा पथ खोजी पाँव नानी का गाँव नानी की बानी अनगिन कहानी जानी-अनजानी सदियों पुरानी किस्से अनमोल मीठे मृदु बोल माँ है यदि मौन बोलेगा कौन? -मधुप पांडेय
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