सांझ के ख़्वाब

सांझ के ख़्वाब

देहरी पर रखे, सांझ के ख़्वाब कुछ, 
थाम कर हाथ चल, भोर तक हम चलें
जब खुली आँख तब, तुम कहीं थी नहीं
लौट आना यहीं, शाम जब फिर ढले

कट रही ज़िंदगी, सोचते-सोचते
तुम सफ़र में मेरे, साथ होंगी कभी
नैन ये खोजते, हर तरफ बस तुम्हें
भीड़ से हूँ घिरा पर अकेला अभी
प्रेम में पाओगी, शीत की इक छुअन,
जून की धूप में, पाँव तेरे जले

थक गया हूँ तुम्हें, चाहते-चाहते
छीन कर प्यार को, कोई पाता नहीं
मैं तुम्हें आज ये, शर्तिया कह रहा
मिल अगर जाए भी, तो निभाता नहीं
ख़ुश्बुओं के लिये ये महल कब बने
फूल खिलते सदा आसमां के तले

-मनोज गुर्जर

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