संदर्भों के सूत्र

संदर्भों के सूत्र

सच ही सन्दर्भों के सूत्र बहुत उलझे हैं
कोई भी सत्य सहज साथ कहाँ आएगा?

जाने सम्बन्धों में कौन-कहाँ बैठा है
किसके मुख जाने यह कौन-सा मुखौटा है
बावरे विधाता के बिगड़े इस नाटक में
कौन-कौन नायक तो कौन पात्र छोटा है
पृष्ठों पर बिखरी हैं अधिलिखी वितृष्णाएँ हैं
कोई भी तथ्य नया हाथ कहाँ आएगा?

बहल रहे शब्दों के अर्थ नयी ध्वनियों में
भाव हैं विचारों में पर बहुत उपेक्षित हैं
धुँधला-सा स्वप्न कभी देखा था निंदिया में
आँखों से पूछो तो आज भी प्रतीक्षित हैं
विविध रंग-रूपों में दिखतीं परिभाषाएँ
कोई भी कथ्य झुका माथ कहाँ पाएगा?

सारा परिवेश प्रकट घूम रहा पल-पल में
गति की प्रतिस्पद्र्धा में कौन खड़ा रहता है
कौन देख पाता है आँख से हिरण्यगर्भ
ऊँचे अनुभूति शिखर, कौन अड़ा रहता है?
काई पर पाँव हिले, हाथ दो हवाओं में
कोई लक्ष्य स्वतः पास कहाँ आएगा?

-पंडित विश्वेश्वर शर्मा

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