पावस की सांझ

पावस की सांझ

पावस की सांझ खुली आँखों की पलकों पर
सुधियों ने सतरंगी इन्द्रधनुष ताना है

सुरभित संसार है बहार की बयारों से
वीणा के तार बार-बार झनझनाते हैं
दूर कहीं दिखती हैं आशाएँ मुस्कातीं
मन में मनुहार के विचार सनसनाते हैं
आज गई माँज विभा पूजा के सब बर्तन
साधना सजी है फिर कौन यज्ञ ठाना है

वन से घर लौटते वियोगी चरवाहे ने
सोहिनी के सरगम पर तान को उठाई है
यह धुन, एकाकीपन स्वप्नों की अल्हड़ता
आसपास घूम रही किसकी परछाईं है?
बजती है झाँझ और मृदंग इन दिशाओं में
ग्वालिन की पायल में रास का बहाना है

मुक्त हैं उमंगे और मधु झरता मौसम नम
कामना सयानी का यौवन उमगाया है
स्निग्ध समय, दग्ध हृदय हाथ में लिये हैं हम
पास की तलाई में पंकज मुरझाया है
अभिलाषा बांझ खड़ी अंतर अकुलाई-सी
संयम की सीमा पर मन को समझाना है

-पंडित विश्वेश्वर शर्मा

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