दीपावली

दीपावली

खेतों में पकी फसल लहलहाती थी
कुम्हार के चाक पर नाचती मिट्टी मुस्काती थी
चूने की सफेदी से दीवारों की सीलन मिट जाती थी
गोबर की गंध से आँगन महकता था
गुड़ का सा मिठास जुबानों से टपकता था
आस्थाओं के ईश्वर का सामूहिक पूजन था
दीपावली का मतलब यही सब था
अब कुछ और है

"था" से "है" के रास्ते में बिछ गई हैं
सड़कें, इमारतें ,रोशनी, शोर
लक्ष्मी को दास बनाने की समुंदरी चाह
और पटाखें प्रदूषण का वाहक बन गए हैं

-रास बिहारी गौड़

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