वक्त से हारे नहीं हैं

वक्त से हारे नहीं हैं

रास रस में डूबकर घनश्याम हो सकते नहीं हैं
जानते है हम कि राजा राम हो सकते नहीं हैं
द्वारिका के राज करने हेतु ब्रज त्यागे नहीं हैं
स्वर्ण हिरणों को पकड़ने हम कभी भागे नहीं हैं

पंक से है दूर पर माना कि हम सरसिज नहीं हैं
शहर में हम भीड़ की पहचान तो हरगिज़ नहीं हैं
ताम्रपत्रों पर न ख़ुद पाये, सलीके से बला से
हम स्वयं संपन्न है सदभाव अभिव्यंजन कला से

हम नहीं सागर, मगर हम प्यास के मीठे कुएं हैं
हम नदी के धार है, पत्थर मगर भीगे हुए हैं
आम के कुछ पेड़ थे जो आंधियों में हिल गए हैं
आप को बाज़ार में हम बहुत सस्ते मिल गए हैं

हम स्वयं में ही खड़े हैं वक्त से हारे नहीं हैं
ये भी सच है कि हमारे हाथ ध्रुव तारे नहीं हैं
तुम स्वयं से भागकर कब तक हवाओं में रहोगे
एक दिन मन का विषैला पाप तुम किससे कहोगे

और भी है अक्षराखेटी, भयावह व्याघ्र वन में
सूर्य भी है, चंद्रमा भी इस तमिसा के गगन में
शब्द का पावक पखेरू पंख अपने खोलता है
देख लो ब्रह्माण्ड तक विज्ञान सारा डोलता है

दुर्ग निष्कासित पुनः तुम ढूंढ़ते ढहते किलो को
किन्तु हम तो बहुत पीछे छोड़ आए मंज़िलों को
प्राप्तियाँ संपूर्तियाँ जो रिक्त हैं, उनके लिए हैं
सिंधु हैं हम, सैकड़ों मंदाकिनी मीठी पिये हैं

हम उमड़ते बादलों के प्राण हैं, काली घटा हैं
बांध ले भागीरथी शिव की विकट बिखरी जटा हैं
मोतिया बोते, सुनहले सीप भी हैं, साँप भी हैं
हम बसंत बहार, पतझर के हमीं संताप भी हैं

ये न समझो मलय वृक्षों पर हलाहल ही जिये हैं
सैकड़ों मधुबन अधर से, दृष्टि से हमने पिये हैं
बुलबुले भी हैं, हवाओं में हवाओं की ख़बर हैं
जुगनाओ की भांति सारी रात पर रखते नज़र हैं

वक्ष पर तूफ़ान, झंझाएँ, बवंडर झेलते हैं
हम विकल उत्ताल लहरों से विहँस कर खेलते हैं
सौम्य हैं शालीन हैं हम, दूर तक बिखरे हुए हैं
हम शिकंजे में प्रलय के व्याल को पकड़े हुए हैं

© डॉ विष्णु विराट

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